Monday, April 26, 2021

ऑक्सीजन की कमी क्यों? क्या हवा में सांस लेने योग्य ऑक्सीजन नहीं, जानें विस्तार से.....

कोरोना की दूसरी लहर ने हमारी सभी तैयारियों की कलाई खोलकर रख दी है। अस्पतालों में बेड और दवा तो दूर, मरीजों को ऑक्सीजन भी नहीं मिल रही। हालात इतने गंभीर हो गए हैं कि सरकार 50 हजार मीट्रिक टन ऑक्सीजन खरीदने के लिए दुनिया के बाजार में खड़ी है। ऐसे में लोगों के मन में तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं कि आखिर हम सब हवा में सांस लेते हैं और वह हमारे चारों ओर मौजूद है...तो क्यों नहीं हम इस हवा को सिलेंडरों में भरकर मरीजों को लगा देते? आखिर अस्पतालों में पाइप से आने वाली ऑक्सीजन यानी मेडिकल ऑक्सीजन है क्या? यह बनती कैसे है? और क्यों इसकी कमी है?





तो आइये जानते हैं ऐसे सभी सवालों के जवाब...


प्र. मेडिकल ऑक्सीजन क्या है?

कानूनी रूप से यह एक आवश्यक दवा है जो 2015 में जारी देश की अति आवश्यक दवाओं की सूची में शामिल है। इसे हेल्थकेयर के तीन लेवल- प्राइमरी, सेकेंडरी और टर्शीयरी​ के लिए आवश्यक करार दिया गया है। यह WHO की भी आवश्यक दवाओं की लिस्ट में शामिल है।

प्रोडक्ट लेवल पर मेडिकल ऑक्सीजन का मतलब 98% तक शुद्ध ऑक्सीजन होता है, जिसमें नमी, धूल या दूसरी गैस जैसी अशुद्धि न हों।


प्र. हमारे चारों ओर हवा है और हम उसमें ही सांस लेते हैं, ऐसे में उसे ही हम सिलेंडरों में क्यों नहीं भर लेते?

हमारे चारों ओर मौजूद हवा में मात्र 21% ऑक्सीजन होती है। मेडिकल इमरजेंसी में उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। इसलिए मेडिकल ऑक्सीजन को खास वैज्ञानिक तरीके से बड़े-बड़े प्लांट में तैयार किया जाता है। वह भी लिक्विड ऑक्सीजन।


प्र. मेडिकल ऑक्सीजन कैसे बनाई जाती है?

मेडिकल ऑक्सीजन बनाने के तरीके को समझने के लिए पहले कुछ बातों को जानना जरूरी है...


बॉयलिंग पॉइंट


जिस तरह पानी को 0 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा करने पर वह जमकर बर्फ या ठोस बन जाता है और 100 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करने पर उबलकर भाप यानी गैस में बदल जाता है, ठीक ऐसे ही हमारे आसपास मौजूद ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि इसलिए गैस हैं क्योंकि वह बेहद कम तापमान पर उबलकर गैस बन चुकी हैं।

ऑक्सीजन -183 डिग्री सेल्सियस पर ही उबलकर गैस में बदल जाती है।

यानी पानी का बॉयलिंग पॉइंट 100 डिग्री सेल्सियस है तो ऑक्सीजन का -183 डिग्री सेल्सियस।

दूसरे शब्दों में कहें तो अगर हम ऑक्सीजन को -183 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा ठंडा कर दें तो वह लिक्विड में बदल जाएगी।



अब बात मेडिकल ऑक्सीजन बनाने के तरीके की...


मेडिकल ऑक्सीजन हमारे चारों ओर मौजूद हवा में से शुद्ध ऑक्सीजन को अलग करके बनाई जाती है।

हमारे आसपास मौजूद हवा में 78% नाइट्रोजन, 21% ऑक्सीजन और बाकी 1% आर्गन, हीलियम, नियोन, क्रिप्टोन, जीनोन जैसी गैस होती हैं।

इन सभी गैसों का बॉयलिंग पॉइंट बेहद कम, लेकिन अलग-अलग होता है।

अगर हम हवा को जमा करके उसे ठंडा करते जाएं तो -108 डिग्री पर जीनोन गैस लिक्विड में बदल जाएगी। ऐसे में हम उसे हवा से अलग कर सकते हैं।

ठीक इसी तरह -153.2 डिग्री पर क्रिप्टोन, -183 ऑक्सीजन और अन्य गैस बारी-बारी से तरल बनती जाएंगी और उन्हें हम अलग-अलग करके लिक्विड फॉर्म में जमा कर लेते हैं।

वायु से गैसों को अलग करने की इस टेक्नीक को हम क्रायोजेनिक टेक्निक फॉर सेपरेशन ऑफ एयर कहते हैं।


इस तरह से तैयार तरल ऑक्सीजन  99.5% तक शुद्ध होती है।

यह पूरी प्रक्रिया बेहद ज्यादा प्रेशर में पूरी की जाती है ताकि गैसों का बॉयलिंग पॉइंट बढ़ जाए। यानी बहुत ज्यादा ठंडा किए बिना ही गैस लिक्विड में बदल जाए।

इस प्रक्रिया से पहले हवा को ठंडा करके उसमें से नमी और फिल्टर के जरिए धूल, तेल और अन्य अशुद्धियों को अलग कर लिया जाता है।



प्र. ऑक्सीजन अस्पतालों तक पहुंचती कैसे है?


मैनुफैक्चरर्स इस लिक्विड ऑक्सीजन को बड़े-बड़े टैंकरों में स्टोर करते हैं। यहां से बेहद ठंडे रहने वाले क्रायोजेनिक टैंकरों से डिस्ट्रीब्यूटर तक भेजते हैं।

डिस्ट्रीब्यूटर इसका प्रेशर कम करके गैस के रूप में अलग-अलग तरह के सिलेंडर में इसे भरते हैं।

यही सिलेंडर सीधे अस्पतालों में या इससे छोटे सप्लायरों तक पहुंचाए जाते हैं।

कुछ बड़े अस्पतालों में अपने छोटे-छोटे ऑक्सीजन जनरेशन प्लांट हैं।


प्र. अगर हवा से ऑक्सीजन बनती है और इसे सिलेंडरों से मरीजों तक पहुंचाया जा सकता है तो उसकी कमी क्यों है?

  • केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल का कहना है कि कोरोना महामारी से पहले भारत में रोज मेडिकल ऑक्सीजन की खपत 1000-1200 मीट्रिक टन थी, यह 15 अप्रैल तक बढ़कर 4,795 मीट्रिक टन हो गई।
  • ऑल इंडिया इंडस्ट्रियल गैसेज मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (AIIGMA) के अनुसार 12 अप्रैल तक देश में मेडिकल यूज के लिए रोज 3,842 मीट्रिक टन ऑक्सीजन सप्लाई हो रही थी।
  • तेजी से बढ़ी मांग के चलते ऑक्सीजन की सप्लाई में भारी दिक्कत हो रही है।
  • पूरे देश में प्लांट से लिक्विड ऑक्सीजन को डिस्ट्रीब्यूटर तक पहुंचाने के लिए केवल 1200 से 1500 क्राइजोनिक टैंकर उपलब्ध हैं।
  • यह महामारी की दूसरी लहर से पहले तक के लिए तो पर्याप्त थे, मगर अब 2 लाख मरीज रोज सामने आने से टैंकर कम पड़ रहे हैं।
  • डिस्ट्रीब्यूटर के स्तर पर भी लिक्विड ऑक्सीजन को गैस में बदल कर सिलेंडरों में भरने के लिए भी खाली सिलेंडरों की कमी है।

प्र. किसी इंसान को कितनी ऑक्सीजन की जरूरत होती है?

एक वयस्क जब वह कोई काम नहीं कर रहा होता तो उसे सांस लेने के लिए हर मिनट 7 से 8 लीटर हवा की जरूरत होती है। यानी रोज करीब 11,000 लीटर हवा। सांस के जरिए फेफड़ों में जाने वाली हवा में 20% ऑक्सीजन होती है, जबकि छोड़ी जाने वाली सांस में 15% रहती है। यानी सांस के जरिए भीतर जाने वाली हवा का मात्र 5% का इस्तेमाल होता है। यही 5% ऑक्सीजन है जो कार्बन डाइऑक्साइड में बदलती है। यानी एक इंसान को 24 घंटे में करीब 550 लीटर शुद्ध ऑक्सीजन की जरूरत होती है। मेहनत का काम करने या वर्जिश करने पर ज्यादा ऑक्सीजन चाहिए होती है।


प्र. स्वस्थ इंसान एक मिनट में कितनी बार सांस लेता है?

एक स्वस्थ वयस्क एक मिनट में 12 से 20 बार सांस लेता है। हर मिनट 12 से कम या 20 से ज्यादा बार सांस लेना किसी परेशानी की निशानी है।


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